बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

रावण क्यों मरता नहीं


रावण क्यों मरता नहीं,
जिंदा है वह क्यों ?
आदमी के अंदर,
राम पुनः जन्म लेता नहीं ।।
क्यों रावण बना रहा है ?
पुनः सोने की लंका ।
क्यों नोच रहा है चीर सीता का,
क्यों सीता की आर्द्र पुकार।
कोई हनुमान सुनता नहीं।।
क्यों हनुमान पुनः यहां,
जन्म लेता नहीं ?
क्यों जीवित है मात्र रावण यहां,
क्यों राम दिलों मे रमता नहीं ?
क्यों परिलक्षित होता है,
मात्र रावण की जनमानस में हर कहीं
नग्न होकर कर रहा यह तांडव,
क्यों गांडिव आज कोई उठता नहीं।।
हत्याएं करता, और करता,
यह नित बलात्कार,
वर्षभर जिसका हो सत्कार,
क्या संभव है,
उसका इस दुनिया से पूर्ण संहार ?
क्यों मनाते है हम दशहरा,
और आखिर क्या मुंह लेकर ?
क्यों रचते है हम ढोंग इसका जब रखते,
 दशानंद को जीवित अंदर निरंतर जीवनभर।।
जब होगा अंदर का राम जीवित,
तभी रावण होगा नश्वर।।
मनीष शर्मा

रविवार, 10 जुलाई 2011

खमोशी

अजीब सी खमोशी छाई है
हवा अपनी ठन्डाई कही छोड आई है
अपने भी अजनवी से हो गये है
पर फिर भी लोगो को क्यु अन्धेरे मे भी 

दिखती रोशनाई है 
मनीष शर्मा
 

बुधवार, 22 जून 2011

मेरी भी दीवाली

दीवाली की रात जब भूख से में बिलबिला रहा था 
सामने की हवेली से आती पकवानों की खुश्बू ने
मुझे और भी बैचेन कर दिया 
शायद मेरे झुग्गी के सामने इम्पाला वाला 
वह घर लक्ष्मी का इंतजार कर रहा था 
उसके मालिक ने मेरी पुताई के पैसे 
अगले दिन देने के लिए कहा था 
अहसान जताते हुए गंधाती हुई मिठाई के
 दो टुकड़े और चार बासी पूरिया 
मेमसाब ने दी थी 
खुश्बू ने मेरी आग को और भी भड़का दिया था
मैंने बासी पुरियों के टुकड़े अपने मुह में दबा लिए 
पुष्टे जैसे ये टुकड़े गलने का नाम ही नहीं ले रहे थे 
इतने में मेरा पप्पू दौड़ता हुआ अन्दर घुसा 
हाथ में उसके कागज का एक पुडा था
बोला बापू में फुलझड़ी लाया हूँ 
मैंने अपनी आंखे फैला कर देखा
बमों में मसलों को मेरा वो नन्हा दिया सलाई से 
आग लगाने की कोशिश कर रहा था 
जैसे ही बारूद जला वह ख़ुशी से नाचने लगा 
मैंने बासी मिठाई का टुकड़ा उसके मुह में डाल दिया 
उसने एक उवाकई सी ली और बोला
 बापू क्या इस साल हमें जलेबी खाने नहीं मिलेगी 
दूर कही से किसी के हज़ार पटाखे वाली लड़ 
चलाने की आवाज़ आ रही थी मनो कोई 
हमारी गरीबी का मजाक उड़ा रहा हो 
मनीष शर्मा
तहसीलदार बसोदा

मंगलवार, 21 जून 2011

उसकी भी दिवाली



फटी फ्राक और मैले कुचैले बालों में 
पन्नियों की पोटली पीठ पर टांगे
वह आज बहुत खुश लग रही थी 
दिवाली का आज दूसरा दिन है
घरों के बहार चले हुए पथाखों की चिंदिया बिखरी हुई हैं 
यहाँ वहां कुछ अधजली फुलझड़िया भी पड़ी है 
पटाखों की चिंदियों को वह एक अख़बार
की कतरन पर रख कर जलती है
जब सर्राटे की आवाज़ के साथ 
वह जलते है तो तालियाँ बजाकर खिलखिलाती है 
घर घर में मांगने के लिए आवाज़ लगाती है 
कही से मिलती दुत्कार तो कही से
कुछ चिल्लर बताशे व लाये मिलते है 
आज का दिन उसके लिए खुशियों का है 
क्यूंकि आज उसने दिवाली मनाई है 
पटाखे भी चलाये और लाई भी खाई है
सोचता हूँ मैं की कई लोगों के घरों में
 आज के दिन लक्ष्मी आ गई है
 पर इस नन्ही लक्ष्मी के कपडे भूख और बेचारगी देख 
मेरा दिवाली मानाने का आनंद कही खो गया है 
सोचता हूँ लोगों के इस तरह दिवाली मानाने 
से मेरा  देश और भी अधिक गमजदा हो गया है 
मेरा देश  और भी गमजदा हो गया है..............................

मनीष शर्मा 
तहसीलदार बसोदा


शुक्रवार, 17 जून 2011

सुनामी का कहर

टूटती सांसो को न देखिये आप तो ख़ुशी मनाईये 
करुण रुदन न सुनिये आप तो बेखबर रहिये 
टूट जाये घर तो क्या ? आप तो नशे में रहिये 
क्यूँ करू किसी की मदद मेरे घर में कौन  कोई मारा है 
यह सोच कर खुश रहिये 
संवेदनाओ का गला घोटना है तो बड़ा आसान 
पर जब कभी आपके साथ हो यह हादसा 
तो न कहियेगा की लोगो के दिल पत्थर के है
 कोई मदद को नहीं आता 
कि कोई क्यों हमारे बुझे  दीपो को नहीं जलाता 
अपनापन भुला दीजिये घर को ही देश समझिये 
यदि कोई जोर ही दे तो शान से कह दीजिये 
मैं क्या दे सकता हूँ
और कन्नी काट कर बच निकालिये
लहरों ने जिसे निगला वो तो अजनबी है 
कह कर नए साल तक अपने दिमाग पर न जोर दीजिये 
और बोतल की सारी सुरा अपने कंठ में उड़ेल लीजिये 
बेशर्म शर्मदारों अभी भी होती है आशंका
कि तुम्हारे अन्दर गैरत बची है की नहीं ? 
अपनों पर जब कहर ढहे तुम्हारी आत्मा रोटी नहीं है 
इसी भरम में मैं तुम्हे आज जगाता हूँ 
जगाओ अपने इन्सान को आज गुहार लगता हूँ 
अपनों का दर्द अब और न भुलाईये 
कोरे गल ही न चलाकर मदद को आगे भी आईये 
जितना भी कर सकते है अर्पण कर दीजिये 
जिन्दगी में जो भी कहना था बुरा कर लिया 
आज मिला है अवसर नम आँखों से कर मदद प्रायश्चित कीजिये 
अपनों को अजनबी न मानिये 
संवेदनाओ को शिद्दत  से महसूस कीजिये 
और इतने पर भी नहीं जागता आपका जमीर 
तो खूब कीजिये बातें घटना पर खूब पान चबाइये 
पीक निगल निगल कर और भी निर्लज्ज हो जाईये 
जिसे मरना हो मरे जाये भाद में आप तो बस खुश हो जाईये

मनीष शर्मा
तहसीलदार बसोदा

सोमवार, 13 जून 2011

अंतिम गवाही

 रात की तन्हाई में फिर गूंज रही है कर्कश सी सायरन की आवाज़ 
फिर किसी का मेरे घर की कुण्डी खटखटाना 
देने लगता है मुझे आभास कि फिर किसी की मौत के अंतिम क्षणों में मेरी गवाही है
कि कागज के एक कोरे पन्ने पर जिन्दगी ने अपने अंतिम दस्तखत कर दिए है कि 
 डॉक्टर ने की है तस्दीक  कि
जिन्दगी अपनी जिन्दगी  की अंतिम गवाही तक जीवित थी 
अपने कोरे पन्ने में अनेक जिंदगियों के आखरी लफ़्ज़ों को सहेजते हुए 
मैं सोचता हूँ कि औरतें तो है अक्सर आग में जलती 
पर क्यों कभी यह आदमियों को नहीं लगती जलने के बाद भी 
जलते बदन और तार तार कपड़ो में जलते शरीर की गंध के बीच भी वह कैसे उन पाशविक कृत्यों को अपने अंतिम लफ़्ज़ों में भी बयान  नहीं करती क्यों नहीं समझती कि पशुओ पर इसका कोई असर नहीं होता 
वे तो अपने को बचने के लिए ये ढोंग रचते है 
तेरी जैसी मासूम द्वारा इन्हे अंतिम क्षणों में भी बचने के प्रयास से ये कुत्ते भेडिये बन जाते है 
फिर करते है शादी फिर किसी मासूम को जलाते है 
रात में गूंजती है कर्कश सायरन की आवाज़ 
यंत्रवत मेरे हाँथ फिर किसी कोरे कागज पर चले जाते है 
यंत्रवत से मेरे हाथ फिर किसी .......................................
मनीष शर्मा 
तहसीलदार बसोदा

बुधवार, 8 जून 2011

हत्यारा कौन

एक छोटे से बच्चे को उसकी माँ 
कडकडाती ठण्ड में रोज थी पढाती 
रात रात भर जगती और प्यार से चाय पिलाती 
धीरे धीरे किताबों के ढेर में वो डूबने लगा था
आँखों पर लग चुका था  चश्मा 
और कलम नन्ही उँगलियों में दिखने लगा था 
कब सत्रह कक्षाएं उसने पास कर ली, पता ही न चला
पर इतने पर भी बेकारी ने उसे हर पल छला 
हर बार उसकी नज़र किसी विज्ञापन पर जा टिकती 
बढ़े आस से उंगलिया आवेदन फॉर्म भरती
आँखों में निकल जाती थी परीक्षा से पहले की रात 
बस रहता था वह या उसकी किताब 
परीक्षा के नतीजे का फिर वह इंतजार 
किन्तु हाथ आती थी फिर वाही बेकारी की बेगार 
कभी कभी कुंठित होकर वह सोचता
काश उसका डब्बा भी आरक्षित श्रेणी का होता 
फर्स्ट क्लास क्लास का नहीं तो थर्ड क्लास का ही मिल जाता आरक्षण 
तो काम  ढूढो रेल में जनरल बोगी में तो नहीं जाना पड़ता 
क्योकि इसमे तो टिकिट के बाद भी सीट की कोई गुन्जाईस नहीं होती 
किन्तु एक माध्यम वर्गीय परिवार के पास यह औजार नहीं होता 
इसलिए उनके होनहार लड़के के पास कभी रोजगार नहीं होता 
सो बेरोजगारी का मारा वह बेचारा 
जब भी अपने घर जाता उसका मन था घवराता
कोई पाप न करने के बाद भी माँ बाप से हमेशा नज़ारे चुराता 
बेकारी के स्याह अंधेरों ने उसे अब घेरा हुआ था
व्यक्तित्व पर उसके गहरा असर छोड़ा हुआ था
बहन की शादी की भी घर में बातें होने लगी थी 
बेकारी से अब रातें भी उसकी आहत होने लगी थी 
एक जवान बहन का भाई बेरोजगार खड़ा  था 
घर में पैसों का टोटा पड़ा था 
बाप की पीठ अब झुकने लगी थी 
झुर्रियां माँ पर भी अब दिखने लगी थी 
अब उसके उत्साह का पतन हो चुका था
अँधेरे  उसे अब रास आ रहे थे 
नाते रिश्तेदार भी मुह छुपा रहे थे 
रात को अब वह अक्सर देर से आता 
अपने माँ बाप से मुह छुपता 
किसी दिन शहर में कोई वारदात घटी थी 
मैंने भी देखा पेपर में उसकी तस्वीर छपी थी 
सुना था जब घर में पुलिस पहुची थी 
पंखे से उसकी लाश टंगी थी 
उसकी मौत को लोगो ने जल्दी ही भुलाया 
पर मैंने उसके हत्यारे का पता लगाया 
उसे किसी और ने नहीं सिर्फ बेरोजगारी ने मारा था
 नहीं तो मेरा दोस्त डकैत नहीं बहुत ही मासूम और प्यारा था

मनीष शर्मा
तहसीलदार