एक छोटे से बच्चे को उसकी माँ
कडकडाती ठण्ड में रोज थी पढाती
रात रात भर जगती और प्यार से चाय पिलाती
धीरे धीरे किताबों के ढेर में वो डूबने लगा था
आँखों पर लग चुका था चश्मा
और कलम नन्ही उँगलियों में दिखने लगा था
कब सत्रह कक्षाएं उसने पास कर ली, पता ही न चला
पर इतने पर भी बेकारी ने उसे हर पल छला
हर बार उसकी नज़र किसी विज्ञापन पर जा टिकती
बढ़े आस से उंगलिया आवेदन फॉर्म भरती
आँखों में निकल जाती थी परीक्षा से पहले की रात
बस रहता था वह या उसकी किताब
परीक्षा के नतीजे का फिर वह इंतजार
किन्तु हाथ आती थी फिर वाही बेकारी की बेगार
कभी कभी कुंठित होकर वह सोचता
काश उसका डब्बा भी आरक्षित श्रेणी का होता
फर्स्ट क्लास क्लास का नहीं तो थर्ड क्लास का ही मिल जाता आरक्षण
तो काम ढूढो रेल में जनरल बोगी में तो नहीं जाना पड़ता
क्योकि इसमे तो टिकिट के बाद भी सीट की कोई गुन्जाईस नहीं होती
किन्तु एक माध्यम वर्गीय परिवार के पास यह औजार नहीं होता
इसलिए उनके होनहार लड़के के पास कभी रोजगार नहीं होता
सो बेरोजगारी का मारा वह बेचारा
जब भी अपने घर जाता उसका मन था घवराता
कोई पाप न करने के बाद भी माँ बाप से हमेशा नज़ारे चुराता
बेकारी के स्याह अंधेरों ने उसे अब घेरा हुआ था
व्यक्तित्व पर उसके गहरा असर छोड़ा हुआ था
बहन की शादी की भी घर में बातें होने लगी थी
बेकारी से अब रातें भी उसकी आहत होने लगी थी
एक जवान बहन का भाई बेरोजगार खड़ा था
घर में पैसों का टोटा पड़ा था
बाप की पीठ अब झुकने लगी थी
झुर्रियां माँ पर भी अब दिखने लगी थी
अब उसके उत्साह का पतन हो चुका था
अँधेरे उसे अब रास आ रहे थे
नाते रिश्तेदार भी मुह छुपा रहे थे
रात को अब वह अक्सर देर से आता
अपने माँ बाप से मुह छुपता
किसी दिन शहर में कोई वारदात घटी थी
मैंने भी देखा पेपर में उसकी तस्वीर छपी थी
सुना था जब घर में पुलिस पहुची थी
पंखे से उसकी लाश टंगी थी
उसकी मौत को लोगो ने जल्दी ही भुलाया
पर मैंने उसके हत्यारे का पता लगाया
उसे किसी और ने नहीं सिर्फ बेरोजगारी ने मारा था
नहीं तो मेरा दोस्त डकैत नहीं बहुत ही मासूम और प्यारा था
मनीष शर्मा
तहसीलदार